Ashab e Feel Ka Waqia in Hindi – हाथी वालों का पूरा किस्सा

अस्हाब-ए-फ़ील का वाकिया - हाथी वालों का क़िस्सा

अस्हाब-ए-फ़ील का वाकिया हिन्दी में (हाथी वालों का क़िस्सा)

अस्सलामु अलैकुम दोस्तों! IslamicPedia.blog पर आपका स्वागत है। आज हम इस्लामी तारीख के एक बहुत ही अहम और सबक़ आमोज़ वाक़िये – "अस्हाब-ए-फ़ील का वाकिया" (Ashab e Feel Ka Waqia) – पर रौशनी डालेंगे, जिसे "हाथी वालों का क़िस्सा" भी कहा जाता है। यह वाकिया हमारे प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की पैदाइश से कुछ ही दिन पहले पेश आया था। आपसे गुज़ारिश है कि इस वाक़ये को पूरे ग़ौर से पढ़ें और अगर पसंद आए तो अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ ज़रूर शेयर करें।

بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ

अबरहा कौन था? (Who was Abraha?)

अस्हाब-ए-फ़ील की कहानी को समझने से पहले, यह जानना ज़रूरी है कि अबरहा (Abraha) कौन था। अबरहा यमन का हब्शी (इथियोपियाई) गवर्नर और बाद में खुद को बादशाह घोषित करने वाला एक ताक़तवर शख़्स था। वह ईसाई मज़हब का पैरोकार था।

अबरहा ने काबा पर हमला क्यों करना चाहा? (Why did Abraha want to attack the Kaaba?)

यमन के बादशाह अबरहा ने यमन की राजधानी "सनआ" में एक बहुत ही शानदार और आलीशान गिरजाघर (चर्च) बनवाया था, जिसे 'अल-क़ुलैस' कहा जाता था। उसकी ख्वाहिश थी कि अरब के लोग मक्का में ख़ाना-ए-काबा का हज करने के बजाय उसके बनाए हुए गिरजाघर का हज करें और यमन की तरफ़ रुजू करें।

जब यह बात मक्का वालों और दीगर अरब क़बाइल तक पहुँची, तो उनमें ग़ुस्सा पैदा हुआ। रिवायत है कि क़बीला-ए-किनाना के एक शख़्स ने ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब में आकर अबरहा के उस गिरजाघर में घुसकर उसे गंदा कर दिया, जिससे उसकी बेहुरमती हुई। जब अबरहा को इस वाक़िये का इल्म हुआ, तो वह तैश में आ गया और उसने क़सम खाई कि वह इसका बदला लेने के लिए ख़ाना-ए-काबा को नेस्तनाबूद कर देगा। इसी मक़सद के तहत वह हाथियों का एक बड़ा लश्कर लेकर मक्का पर चढ़ाई करने के लिए निकल पड़ा।

हज़रत अब्दुल मुत्तलिब की अबरहा से मुलाक़ात (Abd al-Muttalib's meeting with Abraha)

जब अबरहा का लश्कर मक्का के क़रीब पहुँचा, तो उसके सिपाहियों ने मक्का वालों के ऊँटों और दीगर मवेशियों को छीन लिया। इन ऊँटों में हमारे प्यारे नबी (स.अ.व.) के दादा, सरदार-ए-कुरैश हज़रत अब्दुल मुत्तलिब के भी 200 (कुछ रिवायतों में 400) ऊँट शामिल थे।

हज़रत अब्दुल मुत्तलिब, जो अपनी शराफ़त, हिकमत और वक़ार के लिए मशहूर थे, अबरहा से मुलाक़ात के लिए उसके खेमे में तशरीफ़ ले गए। अबरहा उनकी शख़्सियत से मुतास्सिर हुआ और उन्हें अपने बराबर बिठाया। उसने पूछा, "कहिए सरदार-ए-कुरैश! यहाँ आपकी तशरीफ़ आवरी का क्या मक़सद है?"

हज़रत अब्दुल मुत्तलिब ने जवाब दिया, "मेरे जो ऊँट आपके लश्कर के सिपाही हाँक कर ले आए हैं, आप उन सब मवेशियों को हमारे सुपुर्द कर दीजिए।"

यह सुनकर अबरहा ने हैरत से कहा, "ऐ सरदार-ए-कुरैश! मैं तो यह समझता था कि आप बहुत ही हौसलामन्द और शानदार आदमी हैं, मगर आपने मुझसे अपने ऊँटों का सवाल करके मेरी नज़र में अपना वक़ार कम कर दिया। ऊँट और बकरियों की हक़ीक़त ही क्या है? मैं तो आपके काबा को तोड़-फोड़ कर बर्बाद करने के लिए आया हूँ। आपने तो इसके बारे में गुफ़्तगू ही नहीं की?"

हज़रत अब्दुल मुत्तलिब ने बड़े इत्मीनान से फ़रमाया, "मुझे तो अपने ऊँटों से मतलब है। रहा काबा, तो वह मेरा घर नहीं बल्कि वह अल्लाह का घर है। वह ख़ुद अपने घर को बचा लेगा। मुझे काबा की ज़रा भी फ़िक्र नहीं है।"

यह सुनकर अबरहा अपने तकब्बुर में कहने लगा, "ऐ सरदार-ए-मक्का सुन लीजिए! मैं काबा को ढहा कर उसकी ईंट से ईंट बजा दूँगा और रू-ए-ज़मीन से उसका नाम-ओ-निशान मिटा दूँगा।" अब्दुल मुत्तलिब ने फ़रमाया, "फिर आप जानें और अल्लाह जाने, मैं आपसे सिफ़ारिश करने वाला कौन होता हूँ?"

इस गुफ़्तगू के बाद अबरहा ने ऊँट वापस करने का हुक्म दे दिया। हज़रत अब्दुल मुत्तलिब ऊँट लेकर वापस आए और मक्का वालों से कहा कि वे पहाड़ों पर पनाह ले लें। फिर ख़ुद अपने खानदान के चन्द लोगों के साथ ख़ाना-ए-काबा में जाकर दरवाज़े का हल्का पकड़ कर अल्लाह तआला से दुआ की:

"ऐ अल्लाह! बेशक हर शख़्स अपने-अपने घर की हिफ़ाज़त करता है, लिहाज़ा तू भी अपने घर की हिफ़ाज़त फ़रमा।"

यह दुआ माँग कर वह भी पहाड़ की चोटी पर चढ़ गए और अल्लाह की क़ुदरत का जलवा देखने का इंतेज़ार करने लगे।

अबरहा की मक्का की ओर चढ़ाई और हाथी का रुक जाना (Abraha's advance and the elephant's refusal)

अगली सुबह, अबरहा ने अपने लश्कर को काबा शरीफ़ ढहाने के लिए आगे बढ़ने का हुक्म दिया। उसके लश्कर में कई हाथी थे, जिनमें सबसे आगे एक बहुत बड़ा और ताक़तवर हाथी था जिसका नाम "महमूद" बताया जाता है। जब लश्कर मक्का की हुदूद में मुग़म्मस (या मुहैसर) नामी मक़ाम पर पहुँचा, तो वह ख़ास हाथी अचानक बैठ गया। उसे बार-बार उठाने की कोशिश की गई, मारा-पीटा गया, लेकिन वह काबा की सिम्त में एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ा। अगर उसका रुख़ किसी और तरफ़ किया जाता तो वह उठकर चल पड़ता, लेकिन जैसे ही काबा की तरफ़ करते, वह फिर बैठ जाता।

अबरहा बादशाह का लश्कर और अबाबील

अबाबीलों का लश्कर और अल्लाह का अज़ाब (सूरह फ़ील) (The army of birds and Allah's punishment - Surah Al-Fil)

इसी हालत में, अल्लाह का क़हर अबाबील (छोटे परिंदों) की शक्ल में नमूदार हुआ। समंदर की जानिब से नन्हे-नन्हे परिंदों के झुंड के झुंड आते दिखाई दिए। हर परिंदे की चोंच और पंजों में छोटी-छोटी कंकड़ियाँ थीं। इन परिंदों ने अबरहा के लश्कर और उसके हाथियों पर इस ज़ोर-शोर से संगबारी (पथराव) शुरू कर दी कि उनके परखच्चे उड़ गए।

यह अल्लाह के क़हर की ऐसी मार थी कि जब कोई कंकड़ी किसी फ़ील (हाथी) सवार या सिपाही को लगती, तो वह उसके जिस्म को छेदती हुई हाथी के बदन से पार हो जाती थी। (अल्लाहु अकबर!) अबरहा और उसका पूरा लश्कर हाथियों समेत इस तरह हलाक-ओ-बर्बाद हो गया कि उनके जिस्म की बोटियाँ टुकड़े-टुकड़े होकर ज़मीन पर बिखर गईं, जैसे चबाया हुआ भूसा।

चुनाँचे, क़ुरआन-ए-करीम की सूरह फ़ील (अध्याय 105) में अल्लाह तआला ने इस वाक़िये का ज़िक्र करते हुए फ़रमाया:

أَلَمْ تَرَ كَيْفَ فَعَلَ رَبُّكَ بِأَصْحَابِ الْفِيلِ ﴿١﴾ أَلَمْ يَجْعَلْ كَيْدَهُمْ فِي تَضْلِيلٍ ﴿٢﴾ وَأَرْسَلَ عَلَيْهِمْ طَيْرًا أَبَابِيلَ ﴿٣﴾ تَرْمِيهِم بِحِجَارَةٍ مِّن سِجِّيلٍ ﴿٤﴾ فَجَعَلَهُمْ كَعَصْفٍ مَّأْكُولٍ ﴿٥﴾

"क्या तुमने न देखा कि तुम्हारे रब ने हाथी वालों के साथ क्या किया? (1) क्या उसने उनके मक्र (षड्यंत्र) को अकारथ नहीं कर दिया? (2) और उन पर झुंड के झुंड परिंदे भेजे। (3) जो उन पर पक्की मिट्टी के पत्थर फेंक रहे थे। (4) पस उन्हें ऐसा कर डाला जैसे खाया हुआ भूसा। (5)"

- (अल-क़ुरआन, सूरह फ़ील 105:1-5)

वाक़िये की तफ़सीर और अहमियत (Interpretation and Significance of the Event)

एक अहम नुक्ता:

दोस्तों, अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त चाहता तो अपने घर की हिफ़ाज़त के लिए फ़रिश्तों को भी भेज सकता था, या किसी और बड़े ज़रिये से अपने घर की हिफ़ाज़त कर सकता था। लेकिन उसने ऐसी छोटी सी चिड़िया भेजीं, जिन्हें देखकर किसी को डर भी नहीं लगता। इसमें हिकमत यह है कि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त किसी का मुहताज नहीं, बल्कि वह हमें आगाह कर रहा है कि "ऐ इंसानों! मेरे घर और मेरे दीन (मज़हब) की हिफ़ाज़त के लिए मुझे तुम्हारी रत्ती बराबर भी ज़रूरत नहीं है। मैं चाहूँ तो छोटे-से-छोटे जानवर से अपने घर की हिफ़ाज़त कर लूँ। लेकिन ऐ इंसानों! यह तुम्हारी ही ख़ुशक़िस्मती और शरफ़ होगा कि तुम आख़िरत के लिए कुछ कार-ए-खैर करो।"

अस्हाब-ए-फ़ील के वाक़िये में हमने देखा कि किस तरह अल्लाह तआला ने छोटे-छोटे परिंदों के ज़रिये अपने घर की हिफ़ाज़त की। आज हम तादाद में ज़्यादा होते हुए भी दुश्मन-ए-दीन से शिकस्त खा रहे हैं, इसकी एक बड़ी वजह यह है कि हमने अल्लाह के दीन के लिए वैसी कोशिश नहीं की जैसी करनी चाहिए थी। जिसका नतीजा है कि ज़ालिम हुक्मरान हम पर मुसल्लत होते जा रहे हैं। [अल्लाह हम सब पर रहम करे]

अस्हाब-ए-फ़ील के क़िस्से से हमारे लिए सबक़ (Lessons for us from the story of Ashab Al-Fil)

अल्लाह तआला से दुआ है कि हमें अस्हाब-ए-फ़ील के वाक़िये से सबक़ हासिल करने और उस पर अमल करने की तौफ़ीक़ दे। जो लोग यह कहते हैं कि "इस्लाम ख़तरे में है"... वह याद रखें कि इस्लाम को न ही कभी कोई ख़तरा था और न ही कभी होगा (इंशाअल्लाह)। बल्कि ख़तरे में वह मुसलमान है जो इस दीन को छोड़कर अपने नफ़्स की ताबेदारी कर रहा है।

"यह दीन तो हर घर में दाख़िल होकर रहेगा। चाहे कच्चा मकान हो या पक्का, या बन्द क़िले हों या खुली वादियाँ हों। दीन-ए-इस्लाम सारे आलम-ए-इंसानियत तक पहुँचकर रहने वाला है।"
- हदीस-ए-नबवी ﷺ (मसनद अहमद; 16998 - مفہوم)

अब हमें क्या करना चाहिए? (What should we do now?)

दोस्तों, अस्हाब-ए-फ़ील का वाकिया सुनने के बाद अब आप ख़ुद में ही यह तय कर लें कि आपको दीन के साथ कितनी मज़बूती से रहना है या फिर नहीं रहना है। अल्लाह तआला तो अपना काम बख़ूबी करेगा (इसमें कोई शक नहीं)। वह अपने दीन को इंसानों पर वाज़ेह करेगा, दीन के साथ चलने वालों को आज़माएगा और फिर उसका बेहतरीन बदला देगा। और दीन छोड़ने वालों को दुनिया और आख़िरत में इबरतनाक बनाएगा और अज़ाब देगा।

याद रखें:

इस्लाम की पहचान मुसलमानों से नहीं, बल्कि मुसलमानों की पहचान इस्लाम से है। बहरहाल, हम लोगों को चाहिए कि अल्लाह के दीन की रस्सी को मज़बूती से पकड़ कर रखें। अल्लाह का कलाम क़ुरआन और हुज़ूर (स.अ.व.) के बताए हुए रास्ते पर चलें। अगर हम लोग यह काम करेंगे तो इंशाअल्लाह दुनिया और आख़िरत दोनों में कामयाब हो जाएँगे। [इंशाअल्लाह]

हमारी दुआएं:

  • अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त हमें क़ुरआन पढ़ने, समझने और उस पर अमल करने की तौफ़ीक़ दे। [आमीन]
  • अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त हमें सुन्नत का पाबंद बनाए। [आमीन]
  • जब तक हमें ज़िन्दा रखे, इस्लाम और ईमान पर ज़िन्दा रखे। [आमीन]
  • हमारा ख़ात्मा ईमान पर हो और हमें कलमा पढ़ना नसीब हो। [आमीन सुम्मा आमीन]

अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQ)

सवाल 1: अस्हाब-ए-फ़ील का वाकिया कब पेश आया?

यह वाकिया आम तौर पर माना जाता है कि हमारे प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की विलादत (जन्म) वाले साल, यानी लगभग 570 ईस्वी में पेश आया। इसी वजह से उस साल को "आम-उल-फ़ील" (हाथी का साल) भी कहा जाता है।

सवाल 2: "अबाबील" परिंदे कौनसे थे?

क़ुरआन में "तैरन अबाबील" का ज़िक्र है, जिसका मतलब है "परिंदों के झुंड"। यह किसी ख़ास नस्ल के परिंदे का नाम नहीं है, बल्कि यह बताता है कि परिंदे बड़े-बड़े झुंडों में आए थे। वे छोटे परिंदे थे जो अल्लाह के हुक्म से कंकड़ियाँ बरसा रहे थे।

सवाल 3: इस वाक़ये का ज़िक्र क़ुरआन की किस सूरह में है?

इस वाक़ये का ज़िक्र क़ुरआन मजीद की सूरह नंबर 105, "सूरह अल-फ़ील" में तफ़सील से किया गया है।

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